Natasha

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राजा की रानी

यह दुबला-पतला आदमी रंगून के राजमार्ग पर एक बड़ी-सी गठरी हाथ में लिये हुए सैकड़ों जगह फटे हुए मैले कपड़े पहने घर की ओर जा रहा है, आड़ में से मैंने उसके परितृप्त मुख की ओर नजर की। अपनी ओर नजर करने का मानो उसे अवकाश ही नहीं है। जिस वस्तु से उसका हृदय परिपूर्ण हो रहा है उससे उसके निकट कपड़े-लत्तों का दैन्य मानो एक बारगी अकिंचित्कर हो गया है। और मैं अपने कपड़ों के साधारण से मैलेपन के ही कारण मानो प्रत्येक कदम पर शर्म के मारे सिकुड़कर जड़ हुआ जाता हूँ। रास्ते पर से चलने वाले बिल्कुखल अपरिचित व्यक्ति की भी अपने ऊपर नजर पड़ते देख शर्म के मारे मरा जाता हूँ!

रोहिणी भइया चले गये। मैंने उन्हें नहीं पुकारा और दूसरे क्षण ही वे लोगों के बीच अदृश्य हो गये। क्यों, सो मुझे मालूम नहीं, पर इस बार ऑंसुओं के मारे मेरी दोनों ऑंखें धुँधली हो गयीं। चादर के छोर से उन्हें पोंछते हुए रास्ते के किनारे धीरे-धीरे मैं अपने डेरे पर लौट आया और बार-बार मन ही मन कहने लगा, इस प्रेम से बढ़कर शक्ति, इस प्रेम से बढ़कर शिक्षक संसार में शायद और कोई नहीं। ऐसी कोई बड़ी बात नहीं जिसे यह न कर सके।

फिर भी, बहुत युगों का संचित अन्ध संस्कार मेरे कानों में चुपचाप कहने लगा- यह शुभ नहीं है, यह पवित्र नहीं है- अन्त तक इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।

डेरे पर पहुँचते ही एक बड़ा लिफाफा मिला। खोलकर देखा, नौकरी की दरख्वास्त मंजूर हो गयी है। सागौन की लकड़ी का एक बड़ा भारी व्यापारी अनेक लोगों के आवेदन-पत्र होते हुए भी मुझ गरीब पर ही प्रसन्न हुआ है। भगवान उसका भला करें।

नौकरी नामक वस्तु से पुराना परिचय न था इसलिए, उसे पाकर भी मन में सन्देह बना रहा कि बहुत दिनों तक बनी रहेगी या नहीं। मेरे जो साहब हुए थे वे सच्चे साहब (अंगरेज) होकर भी, देखा कि बंगला भाषा खूब जानते हैं, क्योंकि, कलकत्ते के ऑफिस से बदलकर बर्मा आए थे।

दो हफ्ते की नौकरी के उपरान्त ही उन्होंने बुलाकर कहा, “श्रीकान्त बाबू, तुम इस टेबल पर आकर काम करो, तनख्वाह भी इससे करीब ढाई गुनी पाओगे।”

मैंने प्रकट रूप से तथा मन ही मन भी साहब को लाखों आशीर्वाद देते हुए उस हड्डी-पसली निकली हुई टेबल को छोड़कर एकदम हरी बनात मढ़ी हुई टेबल पर दखल जमा लिया। मनुष्य का जब भला होना होता है तब इसी तरह होता है- हम लोगों के होटल के दादा ठाकुर ने बिल्कुयल ही मिथ्या नहीं कहा है।

किराये की गाड़ी पर चढ़कर यह खुशखबरी अभया को देने गया। रोहिणी भइया ऑफिस से लौटकर जलपान करने बैठे थे; किन्तु, आज उन्हें केवल पानी पीकर अपनी भूख मिटाते हुए नहीं देखा। बल्कि, आज जिस तरह वे अपनी भूख पूरी कर रहे थे, उस तरह पूरी करते संसार में और चाहे जिसे आपत्ति हो, मुझे तो नहीं थी। अतएव यह कहना फिजूल है कि अभया के भोजन के प्रस्ताव पर मैंने अपनी असम्मति नहीं प्रकट की। खाना-पीना शेष होते ही रोहिणी भइया कोट पहिरने लगे। अभया ने खिन्न कण्ठ से कहा, “तुमसे मैं बराबर कहती आती हूँ रोहिणी भइया, कि यह शरीर लेकर इतना परिश्रम मत किया करो, क्या तुम किसी तरह भी न सुनोगे? अच्छा हम लोग क्या करेंगे अधिक रुपयों का? दिन तो हमारे अच्छी तरह कट ही रहे हैं।”

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